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मैं बैचैन था ,रातभर लिखता रहा…!

दर्द कागज़ पर ,मेरा बिकता रहा…!

मैं बैचैन था ,रातभर लिखता रहा…!

*छू रहे थे सब,बुलंदियाँ आसमान की..!

मैं सितारों के बीच,चाँद की तरह छिपता रहा..!

अकड होती तो,कब का टूट गया होता…!

मैं था नाज़ुक डाली, जो सबके आगे झुकता रहा..!

बदले यहाँ लोगों ने,रंग अपने-अपने ढंग से…!

रंग मेरा भी निखरा पर,मैं मेहँदी की तरह पीसता रहा..!

जिनको जल्दी थी,वो बढ़ चले मंज़िल की ओर….!

मैं समन्दर से राज,गहराई के सीखता रहा..!!

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